Sunday, May 24, 2009

ek yatra

17th May 2009

एक यात्रा

हम सुबह 5 बजे सो के उठे. 6 बजे हम सब टॅक्सी में थें. मौसम  अच्छा था और हम दिन भर में होने वाली गर्मी का अनुमान भी नही लगा सकते थे. एफ एम के गानो के साथ हमारी फतेहपुर सीकरी की यात्रा शुरू हुई. चॅनेल बदलते रहना पड़ा ये समझना बहुत मुश्किल है की सुबह सवेरे रेडियो के होस्ट इतना कैसे बोल पाते हैं . खैर आख़िर में 92.7 एफ एम में मधुर गाने सुनाई पड़े इस चॅनेल ने हुमारा दिन भर साथ दिया.

 

उम्मीद के . मुताबिक ही रचना आगे की सीट पर थी और हम तीन जेन्सी, श्रुति और मैं पीछे थे. वो सभी जगह हमारी बॉस होती थी. और पूरे मज़े लेते हुए हुमारी सभी मुश्किलों का इलाज निकलती थी. टॅक्सी फरीदाबाद के आगे पलवल के एक ढाबे मैं रुकी. जहाँ हमने आलू और गोभी के पराठे खाए. जिसने कि लंबे समय तक हॉस्टिल के फीके पराठे खाते खाते एक भूले हुए स्वाद को फिर से जिंदा किया. आधा घंटा वहाँ गुजारने के बाद हम फिर निकले.

 

गर्मी काफ़ी बढ़ चुकी थी.11 बजे के करीब हम सिकंदरा पहुँचे जो की आगरा - मथुरा रोड पर आगरा से 7 किलो मी दूर है. अकबर को उसकी इच्छा के अनुसार यहाँ दफ़नाया गया था. मुख्य मज़ार 150 एकड़ के एक बगीचे के बीचो बीच है.  बगीचे के चारों ओर उँची दीवारें  हैं. चारों ओर दीवार के बीचों बींच 4 मॉन्युमेंटल बिल्डिंग्स (गेट) हैन. दक्शिन वाली ऐसी इमारत मुख्य द्वार है. ये लाल पत्थर 'रेड स्टोन' का बना हुआ है. मुख्य द्वार से मज़ार तक मार्ग के दोनों तरफ बगीचे में धमाचौकड़ी मचाते हुए हिरन दिखे. मुख्य मज़ार मैं अकबर की समधी तक एक सुरंग से लगने वाले रास्ते से जाते हैं. यह एक उँची कोठरी नुमा कमरे के बींचों बीच है. इसमे उत्तर 'नॉर्थ' की तफ़ 'अल्लाह हो अक़बर ''गॉड इस ग्रेट'  और दक्षिण 'नॉर्थ' की तरफ 'जात जलाल हो' 'ग्रेट इस हिज़ ग्लोरी' खुदा हुआ है.

 

सिकंदरा में अक़बर दी ग्रेट की मज़ार पर उसके मौजूद होने का सा अहसास हो रहा . बेहद शांत जगह थी. आवाज़ गूँज रही थी. ऐसा लगा की जिस अकबर के बारे मे इतना पढ़ा है वो सही मैं कभी जिंदा इंसान रहा होगा. एक मौलाना ने हमसे मन्नत माँगने को कहा और अरबी मैं कुछ प्रार्थना की. वाहा से बाहर आके हमने धमाचौकड़ी मचाते हिर्णो को देखा. एक चक्कर लगाया. बाकी के तीन गेट काफ़ी खराब हालत मे थे. हालाँकि बगीचा, मुख्या मज़ार और दक्षिणी द्वार का अच्छा रख रखाव किया गया है.

 

यहाँ करीब डेढ़ घंटे रुकने के बाद हम सीकरी के लिए चले. रस्ता एक - दो जगह थोड़ा खराब था और धूप काफ़ी तेज़ हो गयी थि. करीब एक बजे हम सीकरी पहूचे. पार्किंग से यू पी टौरिज़्म की एक बस हमे बुलंद दरवाजे के लिए ले गयी. कई सारे गाइड हमारे पीछे पॅड गये. पर हमे बिना गाइड के ही पढ़-पढ़कर देखना ज़्यादा अच्छा लगा. जोधाबाई का महल भी वही पर है. हम जोधाबाई महल की ओर बढ़े. श्रुति वहाँ पहले भी चुकी है तो वो ही हमारी गाइड हो गयी. जोधाबाई महल, बीरबल का महल, अकबर की दो और रानियो के महल ,पाँच महल, दीवान खास, दीवान आम  आदि पास पास ही हैं. इनमे से सबसे खूबसूरत पाँच महल है. जो पाँच मंज़िला है. चारों तरफ से खुला है. हर एक उपरी मंज़िल नीचे वाली से छोटी है.  पुराने जमाने मैं राजाओ और रानियोंके  बहुत  मज़े थे. अच्छा है की हम आज के समय मैं एक लोकतांत्रिक देश मैं पैदा हुए. कम से कम कोई भी जगह जा के घूम तो सकते हैं. उस समय की पता नही कितनी आम जनता को ये सारे महलों की झलक भी पाना नसीब हुआ होगा.

 

वहाँ से निकलकर हमने खूब सारा पानी पिया, सेवेन अप और फेंटा भी. फिर हमने बुलंद दरवाजे की तरफ रुख़ किया. एक उँची चट्टान के उपर बने हुए बड़े से दरवाजे से अंदर गये. दरवाजे के अंदर एक बरंडा था. विपरीत दिशा मैं जामा मस्जिद थी. बाई ओर को बुलंद दरवाजा , दाई ओर को सलीम चिश्ती की दरगाह , इस्लाम ख़ान का मकबरा है. हम दाई ओर बढ़े. किनारे किनारे बहुत सारी मार्बल जड़ी हुई क़ब्रे हैं. जिनको पार करने पर सीढ़ियों से नीचे जाता हुआ रास्ता दिखाई देता है. हम उधर ही बढ़ते हैं. अर्रे वो तो एक सुरंग सी है. वहाँ पता चला की अकबर ने अनारकली को चुनवाया नही था. ये सुरंग सीकरी से चलकर दिल्ली मे खुलती है और फिर दिल्ली से चलकर लाहोर. अनारकली को संभवतः वहाँ से निकालकर लाहोर भेज दिया गया था.

 

हम शेख सलीम चिश्ती की दरगाह के अंदर गये. ये मेरा किसी दरगाह मे जाने का पहला अनुभव था. इन्ही संत के नाम पर अकबर ने अपने बेटे का नाम सलीम  रखा था. दरगाह के बगल मे इस्लाम ख़ान का मकबरा है. जो जहाँगीर के समय मे बंगाल का गवर्नर था. दरगाह के आगे कुछ लोग हारमोनियम पर गाने गा रहे थे. वहाँ से    हम शेख सलीम चिश्ती की दरगाह के अंदर गये. ये मेरा किसी दरगाह मे जाने का पहला अनुभव था. इन्ही संत के नाम पर अकबर ने अपने बेटे का नाम सलीम  रखा था. दरगाह के बगल मे इस्लाम ख़ान का मकबरा है. जो जहाँगीर के समय मे बंगाल का गवर्नर था. दरगाह के आगे कुछ लोग हारमोनियम पर गाने  गा रहे थे. वहाँ जामा मस्जिद के बाहर से घूमकर हम बुलंद दरवाजे के अंदर के भाग से बाहर की ओर निकले. बुलंद दरवाजा अकबर की दक्षिण भारत पर जीत का प्रतीक है. इसमे अरबी मैं कुछ लिखा  है जिसका अँग्रेज़ी मे अनुवाद है-  "Said Jesuson whom be peace. The world is a bridge, pass over it but build no house. He  hopes for an hour hopes for eternity. The world is but an hour spend it in devotion. The rest is unseen"

वहाँ सॉफ सफाई का बिल्कुल  ख़याल नही रखा गया है. बहुत  सारे लोग ज़मीन मे दुकाने लगाते हैं. वो ताज़ के छोटे रूप, ताज़ बने हुए चाभियों के छल्ले, मालाए जैसी छोटी मोटी चीज़े बेचते हैं. बुलंद दरवाजे के बाहर से पूरा फतेहपुर सीकरी दिखता है. हम वापस अंदर आए. और जिस गेट से अंदर आए थे उसी से बाहर निकले. ऑटो से पार्किग पर पहुँचे.

अभी करीब 3 ही बजे थे. हमारे पास काफ़ी समय था. वैसे हम चारों ही अलग अलग ताज़ देख चुके हैं. पर हमने एक बार और ताज़ का नज़ारा लेने की सोची. हमने ड्राइवर को रास्ते मे किसी ठीक सी जगह खाने के लिए रुकने को कहा. हम सभी बहुत थक गये थे. पेट मे चूहे दौड़ रहे थे. और हम सारे ही सो गये. ताज  वाहा से करीब 40 कि मी है. नीद तब खुली जब गाड़ी ताज़ महल की वेस्ट पार्किंग पर रूकी. और यहाँ पर हमारे पास कई उँठ और घोड़ा गाड़ी वाले गये. हम घोड़ा गाड़ी पर चढ़ गये.रस्ते मैं शाह जहाँ के बगीचे के किनारे किनारे चलने वाली सड़क पर घोड़े वाला हमे वहाँ का इतिहास बताता रहा. उसके हिसाब से ताज़ का रख रखाव बढ़ा दिया गया है. आजकल ताज़ सुबह 6 बजे ही खोल दिया जाता है. दिन मे एक घंटा उसको बंद करके फर्श को ठंडा किया जाता है. फिर 4:40 पर फिर से उसको खोला जाता है. वहाँ हमने आइस्क्रीम खाई और टिकेट की लाइन मे लग गये.इस बार वहाँ पहले की तरह अफ़रातफ़री नही थी. एक मिलिट्री के जैसे दिखने वाला आदमी लाइन तोड़ने वाले को निकालकर सबसे पीछे ट्रांसपोर्ट कर दे रहा . वो काफ़ी होशियार मालूम पड़ रहा था और दो लाइन को अकेले ही ठीक कर रहा था. लंबी लाइन तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. हम जल्दी ही अंदर पहुँच गये. हमने एक बार फिर वाह ताज़ बोला . क्या नज़ारा है. उसको दूर से ही देर तक निहारा. फोटोग्रफी करी. फिर उसके दाई तरफ वाले लान मैं जा के बैठ गये. हम चारो ही बेहद थक गये थे और हमारा अंदर जाने का मन ही नही करा. वही से एक चक्कर लगाने के बाद हम वापस मुख्या द्वार पर पहुँचे. वहाँ एक जापानी सी शकल वाले जोड़े की तरह तरह की फोटो लेकर एक फोटोग्राफर उन्हे लूट रहा था. हमने देर तक उनको देखा. खूब मज़ा आया. फिर फोटोग्राफर को वाह उस्ताद बोलकर उसी जापानी से अपनी एक फोटो खिंचवाई. अब 5 बॅज़ चुके थे. हम वहाँ से रुख्स्त हुए. एक बीकानेरी  मे बढ़िया सा लंच कम डिनर किया और वापिस दिल्ली की ओर रुख़ किया.

 

7 comments:

Unknown said...

Wah meri sherni...Wah!!! sahi description hain...send the pics too!!!

Unknown said...

Wah meri sherni...Wah!!! sahi description hain...send the pics too!!!

Unknown said...

Waah ustaad waah. Good. Keep it up.

Unknown said...

Nice description.. i think i don't need to visit fatehpur sikri now .. its all here :)

Unknown said...

hey meri bahena.....
kafi changes kar ke likha hai aapne.....achcha hai....
pad kar woh sunday yaad aaya
:(

Unknown said...

"ek yatra" has made the trip truly a memorable !!!

NK said...

App achaaa likhte ho..congrats.